Friday, April 26, 2013

गाली गलौच या गाली गलौज

गाली गलौज़ या गाली गलौच दोनों में से क्या सही है. कल कहीं यह बहस पढ़ी. अनजाने में मैं भी इसमें शामिल हो गया.  क्या गाली गलौच लिखना गलत है?

भाषा कौन बनाता है? भाषा किसी संपादक, किसी व्याकरण शास्त्री, किसी आलोचक के बनाये नहीं बनती.  भाषा को आम आदमी बनाता है वो आदमी जो भाषा को बेखटके, बिना नापतौल के, बिना किसी पोथन्ने के पन्ने पलटे,  प्रवाह सहित बोलता वापरता है. व्याकरण शास्त्री या भाषा शास्त्री अपना इंचीटेप लेकर आम आदमी के बोले हुये को नापता और अपनी बही में नोट करके कहता है कि यह है भाषा.  किसी प्रूफ रीडर की हैसियत को कम मत आंकिये या हिकारत से मत देखिए.  वह  किसी भी बडे धुर्रे संपादक या व्याकरण शास्त्री से अधिक शब्दों के संपर्क में आता है और हर छपे हुये को यह कहकर मत नकार दीजिये कि यह लेखक का लिखा नहीं बल्कि प्रूफ रीडर ने गलती कर डाली है.

जब हिन्दी शब्द सागर बन रहा था तब बाबू श्यामसुन्दर दास ने मुंशी रामलगन लाल को सालों सिर्फ इसलिये लगाया कि वे आम आदमी (बाबू श्याम सुन्दर दास के शब्दों में "अहीरों, कहारों, लोहारों, सोनारों, तमोलियों, तेलियों, जोलाहों, भालू व बन्दर नचाने वालों, कूचेबन्दों, धुनियों, गाड़ीवानों, कुश्तीबाजों, कसेरों, राजगीरों, छापेखानेवालों, महाजनों, बजाजों, दलालों, जुआरियों, महावतों, पंसारियों, साईसों आदि) के पास जायें और आम आदमी के द्वारा प्रयोग किये जाने वाले शब्दों के एकत्रित कर सकें.

हिन्दी में गाली गलौज और गाली गलौज दोनों भरपूर मात्रा में प्रयोग होते रहे हैं, संपादक, लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार या अनुवादक सभी ने दोनों शब्दों का प्रयोग किया है. जैसे

ओस की बूंद में श्री राही मासूम रज़ा
(राजरक द्वरा परकित)


पहला पड़ाव में श्री श्रीलाल शुक्ल
(राजरक द्वरा परकिता पाव)

 कमलेश्वर 
(इसे अतिरिक्त ित आपातालष् 204 ी दिय )





मोहन राकेश-  मलबे का मालिक
(ज्ञानरक द्वरा परकित ोह राके कानियों के संक "ने बाद" से  )


 भीष्म साहनी - मय्यादास की माड़ी
(इसे अतिरिक्त  ष्मी क"वाणी परक  द्वरा परकिती बातष् 167 प एवराजेपरबैक्स द्वरा रकित "न्त " े पष् 78 प ी दें )




भगवती चरण वर्मा - सबहिं नचावत राम गुंसाई
(राजेपरबैक्स द्वरा परकित )


"रेणु" जी - चुनी हुई रचनायें - टोंटी नेंन का खेल.
(श्री भारत यायावर द्वारा संपादित "फणीश्वर नाथ रेणु - चुनी हुई रचनायें" से - वाणी प्रकाशन)



मुंशी प्रेमचंद जी -
(जनवाणरक द्वरा परकित्रेमन्द रचावाग 7 स)


सेठ गोविन्द दास - आत्म निरीक्षण 
(ोविन्दासरंावी - पांचाग - "रतीयिश्वरक द्वरा परकित)



लतीफ "घोंघी" कुछ नहीं होने की पीड़ा
(पुस्ताय द्वरा पित )

 सियाराम शरण गुप्त - अंतिम आकांक्षा से
(ले संस्ानाहित्य ांसी से परकित अंतिम आकांक्षष् 89  )
(्र ओम थानवी का कहना है कि सियाराम शरण गुप्त की रचनावली में यह गाली गलौज है.  निम्न इमेज सियाराम शरण गुप्त की 1964 में प्रकाशित पुस्तक से है वहां भी यह गाली गलौच ही है और यह किताब रचनावली से पहले ही छपी है े कम्पोजी गई है.)




4 comments:

  1. आप ने इतने ग़न्थों के आधार पर सिद्ध कर दिया कि गाली गलौच भी सही है । पर इतनी सी बात के लिए इतनी मेहनत क्यों की ? समाज में दोनों रूप
    चलते हैं , पर भाषा की शुद्धता पर बल देने वाले फिर भी कहेंगे कि गलौज सही है , जैसे भावज , सलज ( साले की पत्नी ) आदि शब्दों के अन्त में ज आता
    है । ज से अन्त होने वाले सैंकड़ों शब्द हिन्दी में मिल जाएँगे , जैसे आत्मज, नीरज , जलज , अण्डज आदि ।

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  2. शर्मनाक हरकत। प्रेमचंद को भी नहीं बख्शा? आपने चालाकी से ऊपर-नीचे के अंश उड़ा दिए हैं ताकि रचना और किताब का नाम तलाशा न जा सके। ... अब जानिए: प्रेमचंद का यह लेख ("गालियां") प्रेमचंद द्वारा स्थापित हंस प्रकाशन से छपी किताब "विविध प्रसंग, खंड-1 (संकलन-संपादन अमृत राय) में मौजूद है; उसमें पृष्ठ 159 पर वही पंक्तियाँ पढ़िए जो आपने उद्धृत की हैं: गाली-गलौज छपा हुआ है। इतना ही नहीं, उसी लेख में आगे (पृष्ठ 160 पर) भी गाली-गलौज ही लिखा हुआ है? किसे प्रामाणिक मानेंगे? हंस प्रकाशन और अमृत राय को नहीं?

    मैं फिर कहता हूँ, आप गलौच ही लिखिए, मगर कोश और बड़े लेखकों को अपनी लाज रखने या जिद मात्र के लिए बदनाम मत कीजिए।

    प्रेमचंद जैसे लेखकों को अब दरियागंज में रातोरात कम्पोज कर-कर हर कोई बेच रहा है। लगता है ऐसे ही सड़क-छाप संस्करण शायद आपके हाथ लग गए हैं। आपने जो किताबें बताईं, अधिकाँश जाहिरा तौर पर कंप्यूटर से कम्पोज हुई हैं। यानी नए जमाने की हैं। प्रेमचंद की भी। जहाँ ठेके पर आजकल हिंदी कम्पोजिंग का काम होता हो, सिस्टम में से सौ किताबों में गलौच ढूंढ़ कर आप अपने को ज्ञानी, मुझे अज्ञानी कहते-न-कहते हिंदी कोशकारों और महान लेखकों को भी अज्ञानी ठहराने लगे हैं! वाह, क्या हिंदी प्रेम है! मैं जो कह चुका फिर स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ, उसे समझिए: किताब आम तौर पर लेखक खुद नहीं छापता है। इसलिए उसकी किताब में जो वर्तनी छपी, वह अनिवार्यतः लेखक की नहीं मानी जा सकती। अभी कल कल आपके गुरु-सामान आशुतोष कुमार अज्ञेय को भी भाषा के मामले में अज्ञानी ठहरा बैठे, हाल छपी (और छप रही) रचनावली के आधार पर जिसका हर शब्द दुबारा कम्पोज हुआ है। संपादन कृष्णदत्त पालीवाल ने किया है, छापा रवीन्द्र कालिया ने है। मगर जो उद्धरण आशुतोषजी ने निकाला, वही अज्ञेय के जमाने में छपी किताबों में 'गलौज' निकला। आशुतोषजी तब से चुप हैं, शायद अपने आप को सही ठहराने की जिद में अज्ञेय की और किताबें पढ़ रहे हों!
    --ओम थानवी

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  3. शब्दों के चयन पर उठा विवाद हास्यास्पद है। आपने दूध का दूध पानी का पानी कर दिया।

    जावेद अख़्तर का लिखा याद आ गया.-
    जानता हूं मैं तुमको जौक़-ए-शायरी भी है
    शख़्सियत सजाने में इक ये माहिरी भी है
    फिर भी हर्फ़ चुनते हो, सिर्फ़ लफ़्ज़ सुनते हो
    इनके दरम्यां क्या है, तुम ना जान पाओगे।

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  4. सहमत, बहुत से धूर्त हिन्दी के बहते पानी को बांधने के चक्कर में पगलाये हुये हैं. मुझे नहीं लगता कि एसे चम्पादकों की बातों पर कोई ध्यान देना चाहिये

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